जय-जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महराज।करहुं कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज॥जयति-जयति शनिदेव दयाला। करत सदा भक्तन प्रतिपाला॥
चारि भुजा तन श्याम विराजै। माथे रतन मुकुट छवि छाजै
परम विशाल मनोहर भाला। टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला॥
कुण्डल श्रवण चमाचम चमकै। हिये माल मुक्तन मणि दमकै॥
कर में गदा त्रिशूल कुठारा। पल विच करैं अरिहिं संहारा॥
‘पिंगल कृष्णो छाया नन्दन। यम कोणस्थ रौद्र दु:ख भंजन॥
‘सौरि मन्द शनी दश नामा। भानु पुत्रा पूजहिं सब कामा॥
जापर प्रभु प्रसन्न हों जाहीं। रंकहु राउ करें क्षण माहीं॥
पर्वतहूं तृण होई निहारत। तृणहूं को पर्वत करि डारत॥
राज मिलत बन रामहि दीन्हा।कैकइहूं की मति हरि लीन्हा॥
बनहूं में मृग कपट दिखाई।मात जानकी गई चुराई॥
लषणहि शक्ति बिकल करि डारा।मचि गयो दल में हाहाकारा॥
दियो कीट करि कंचन लंका।बजि बजरंग वीर को डंका॥
नृप विक्रम पर जब पगु धारा।चित्रा मयूर निगलि गै हारा॥
हार नौलखा लाग्यो चोरी।हाथ पैर डरवायो तोरी॥
भारी दशा निकृष्ट दिखाओ। तेलिहुं घर कोल्हू चलवायौ॥
विनय राग दीपक महं कीन्हो। तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हों॥
हरिशचन्द्रहुं नृप नारि बिकानी।आपहुं भरे डोम घर पानी॥
वैसे नल पर दशा सिरानी। भूंजी मीन कूद गई पानी॥
श्री शकंरहि गहो जब जाई।पारवती को सती कराई॥
तनि बिलोकत ही करि रीसा।नभ उड़ि गयो गौरि सुत सीसा॥
पाण्डव पर ह्वै दशा तुम्हारी।बची द्रोपदी होति उघारी॥
कौरव की भी गति मति मारी। युध्द महाभारत करि डारी॥रवि कहं मुख महं धारि तत्काला। लेकर कूदि परयो पाताला॥शेष देव लखि विनती लाई। रवि को मुख ते दियो छुड़ाई॥वाहन प्रभु के सात सुजाना। गज दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना॥जम्बुक सिंह आदि नख धारी। सो फल ज्योतिष कहत पुकारी॥
गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं। हय ते सुख सम्पत्ति उपजावैं॥
गर्दभहानि करै बहु काजा। सिंह सिध्दकर राज समाजा॥
जम्बुक बुध्दि नष्ट करि डारै। मृग दे कष्ट प्राण संहारै॥
जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी। चोरी आदि होय डर भारी॥
तैसहिं चारि चरण यह नामा। स्वर्ण लोह चांदी अरु ताम्बा॥
लोह चरण पर जब प्रभु आवैं। धान सम्पत्ति नष्ट करावैं॥
समता ताम्र रजत शुभकारी। स्वर्ण सर्व सुख मंगल भारी॥
जो यह शनि चरित्रा नित गावै। कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै॥
अद्भुत नाथ दिखावैं लीला। करैं शत्रु के नशि बल ढीला॥
जो पंडित सुयोग्य बुलवाई। विधिवत शनि ग्रह शान्ति कराई॥
पीपल जल शनि-दिवस चढ़ावत। दीप दान दै बहु सुख पावत॥
कहत राम सुन्दर प्रभु दासा। शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा॥प्रतिमा श्री शनिदेव की, लौह धातु बनवाय।
प्रेम सहित पूजन करै, सकल कष्ट कटि जाय॥चालीसा नित नेम यह, कहहिं सुनहिं धारि धयान।निश्चय शनि ग्रह सुखद ह्वै, पावहिं नर सम्मान॥
आरती शनिदेव जी की
जय गणेश, गिरजा, सुवन, मंगल करण कृपाल।
दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाथ निहाल॥
जय-जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहुं विनय महाराज।
करहुं कृपा रक्षा करो, राखहुं जन की लाज॥
आरती श्री शनिदेव तुम्हारी॥
प्रेम विनय से तुमको ध्याऊं, सुधि लो बेगि हमारी॥
आरती श्री शनिदेव तुम्हारी॥
वेद के ज्ञाता, जगत-विधाता तेरा रूप विशाला।
कर्म भोग करवा भक्तों का पाप नाश कर डाला।
यम-यमुना के प्यारे भ्राता, भक्तों के भयहारी।
आरती श्री शनिदेव तुम्हारी॥
स्वर्ण सिंहासन आप विराजो, वाहन सात सुहावे।
श्याम भक्त हो, रूप श्याम, नित श्याम ध्वजा फहराये।
बचे न कोई दृष्टि से तेरी, देव-असुर नर-नारी॥
आरती श्री शनिदेव तुम्हारी॥
उड़द, तेल, गुड़, काले तिल का तुमको भोग लगावें।
लौह धातु प्रिय, काला कपड़ा, आंक का गजरा भावे।
त्यागी, तपसी, हठी, यती, क्रोधी सब छबी तिहारी।
आरती श्री शनिदेव तुम्हारी॥
शनिवार प्रिय शनि, तेलाभिषेक करावे।
शनिचरणानुरागी मदन तेरा आशीर्वाद नित पावे।
छाया दुलारे, रवि सुत प्यारे, तुझ पे मैं बलिहारी।
आरती श्री शनिदेव तुम्हारी॥
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